Tuesday, December 31, 2013

छः और क्षणिकाएँ


{2013 बीत रहा है, एक और वर्ष आने ही वाला है। जाने वाला कुछ परिवर्तन देकर गया। वे कितने सार्थक हैं, यह आने वाला बतायेगा। पर मन है कि अपने आपमें कुछ खोजता-सा है, कुछ अचीन्हा-सा बोलता है। विगत 16 नवम्बर को माँ भी चली गयीं। इन्हीं सबके इर्द-गिर्द घूमती हैं ये अभिव्यक्तियां।}



पेंसठ
कल जब मिलूंगा आपसे
जानता हूँ- आप क्या कहेंगे
और आप भी 
मेरा जवाब जानते हैं
फिर भी/फांदते हुए
तमाम घटनाओं-दुर्घटनाओं को 
हम चले आते हैं...
चले जाते हैं...
एक शब्द पर सवार...

छियासठ
घूमता है
पहिए सा
समय
किन्तु फिर भी
खींचता है
एक सीधी रेख
यही व्याकरण है
इतिहास का!

सड़सठ
बसन्त आई
खुश हुए कुछ भौंरे
पर.....?
फूलों की पंखुड़ियों से
निकलने लगीं लपटें
झुलसने लगे पेड़

अड़सठ
गुलेलें तनी थीं
बगुलों की ओर
शिकार/मगर
हो गईं
गौरैय्याएं 

उनहत्तर
समुद्र/प्यासा ही रहा
बांट ली गई
नहरों में
नदी 
कुछ कह न पाई!
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और यह क्षणिका मां को याद करते हुए-
सत्तर

अब न कोई हिचकी आयेगी
न स्वप्न आयेगा
बस धूप ही धूप होगी सिर पर
और
एक आंचल याद आयेगा!

Wednesday, September 11, 2013

चार और क्षणिकाएँ

{..........इस पोस्ट के लिए प्रतीक्षा में थीं कई क्षणिकाएँ। मैं सोचता रह गया और कलम के अन्तस में बहती नदी के मुहाने से पाठकों की दृष्टि के सागर में तैरने को निकल पड़ीं ये रचनाएँ!}



इकसठ

चिड़िया 
खेत चुंगकर जा चुकी है
और रखवाली को
राजा ने
गिद्ध भेजे हैं

इन्सानो!
सुन सको तो
मेरा आवाज सुन लो!

वासठ

इन्द्र ने 
हारने की बजाय
हेल्मेट पहनकर
कन्धे पर बैठा लिया है
भस्मासुर को

देवता और मनुष्यो!
राज किसका है
पहचान लो!

तिरेसठ

कहते हैं
वे
गुलेलों से
कौए उड़ा रहे हैं
और तोपों के 
खुले मुँह
हँसे जा रहे हैं

चौंसठ

चिड़ियों का
करके कत्ल
बाज
सुरक्षा माँगते हैं
गिद्ध भोजन कर रहे हैं

कुर्सी पर बैठे
गरुण देव
आँखें मल रहे हैं!

Tuesday, March 19, 2013

चार और क्षणिकाएँ


छाया चित्र : डॉ बलराम अग्रवाल 
।।सत्तावन।।


धूल का गुबार-सा
उठता रहा ब्रह्माण्ड में
एक बच्चा धरती पर खड़ा
देखता रहा.... देखता रहा
और उसने
दे मारा
पानी से भरा एक गुब्बारा!




।।अट्ठावन।।


कमी 
मेरे समर्पण में है
या तुम्हारे स्वीकार में
कि हर बार
मैं रह जाता हूँ
एक पुरुष का अहं बनकर 
और तुम
एक आहत मन-भर!


।।उनसठ।।


इतना.... इतना.....
धुआँ उगलकर भी
चैन नहीं आया
नहीं शान्त हुई
अन्तर की आग!

अब... अब....
इस तमाम धुएँ को
छाया चित्र : उमेश महादोषी 
बादल में बदलकर देखो....!


।।साठ।।



तुम्हारी सुगन्ध को 
उतारता हूँ अपने अन्तर में
आक्रोश से भरे
तुम उंगलियों से 
बन्द किए रहते हो अपनी नाक

क्या कभी सूंघकर देखा है
मेरे बदन से हमेशा
दुर्गन्ध ही निकलती है?