Wednesday, May 5, 2010

क्षणिकाएं/ डॉ० उमेश महादोषी

//नौ //

खुदा! लगने लगा है
तेरी चापों से / बेहद डर
मत आया कर / अब
तू मेरे घर
रिसने दे मुझे
बनकर स्याही / मेरी कलम से
तेरी तूलिका से / छिटक गया है
मेरा मन!

//दस//

तालाब की मछली को
बार-बार पकड़ना चाहा
पर/ पकड़ नहीं आई

हर बार
पेड़ पर बैठी चिड़िया
मेरे कान में चहचहाई

//ग्यारह//
कलम की छोटी-सी कोख से
पैदा हुआ / इतना बड़ा मैं
लोगों ने
कलम का दर्द ही समझा
और मैं
रिसता रहा / स्याही बनकर
अच्छर-अच्छर ......!

// बारह //
गोबर में
छिपा है- खुदा
खाद के रास्ते
पौधों तक पहुंचता है
बदलकर अन्न में
मिटाता है- छुधा










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